सारा बदन अजीब-सी ख़ुशबू से भर गया, शायद तेरा ख़याल हदों से गुज़र गया। किसका ये रंग-रूप झलकता है जिस्म से, ये कौन है जो मेरी रगों में बिखर गया। हम लोग मिल रहे हैं अना अपनी छोड़ कर, अब सोचना ही क्या के मेरा मैं किधर गया। लहजे के इस ख़ुलुस को हम छोड़ते कहाँ, अच्छा हुआ ये ख़ुद ही लहू में उतर गया। मंज़िल मुझे मिली तो सबब साफ़-साफ़ है, आईना सामने था मेरे मैं जिधर गया।
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वही आँगन, वही खिड़की, वही दर याद आता है, मैं जब भी तन्हा होता हूँ, मुझे घर याद आता है। मेरे सीने की हिचकी भी, मुझे खुलकर बताती है, तेरे अपनों को गाँव में, तू अक्सर याद आता है। जो अपने पास हो उसकी कोई क़ीमत नहीं होती, हमारे भाई को ही लो, बिछड़ कर याद आता है। सफलता के सफ़र में तो कहाँ फ़ुर्सत के' कुछ सोचें, मगर जब चोट लगती है, मुक़द्दर याद आता है। मई और जून की गर्मी, बदन से जब टपकती है, नवम्बर याद आता है, दिसम्बर याद आता है।