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Showing posts from May, 2010
ज़िन्दगी ऊँचाइयाँ है आस की और आसमाँ की ज़िन्दगी अंगड़ाइयाँ है कशमकश के कारवाँ की ज़िन्दगी कठिनाइयाँ है प्यार की और परवतों की ज़िन्दगी परछाइयाँ है मनसूबों की मौसमों की ज़िन्दगी ख़ामोश-सा एक खूबसूरत ख्वाब भी है और कभी बेताब-सा एक सिरफिरा सैलाब भी है एक लम्हा ज़िन्दगी है मीलों फैली बदरिया-सी एक तनहा ज़िन्दगी है सिमटी सिकुड़ी गगरिया-सी एक दिन बनकर हवा यह भागती है पागलों-सी और कभी उलझी खुद ही से जूझती है जंगलों-सी एक सुबहा ज़िन्दगी है इन्द्रधनुषी सपन जैसी एक बिरहा रात भर सुलगे जुदाई की अगन-सी ज़िन्दगी झरने का पानी ज़िन्दगी ही प्यास भी है ज़िन्दगी रब की इनायत ज़िन्दगी अरदास भी है ज़िन्दगी भर ढूँढती है ज़िन्दगी क्यों ज़िन्दगी को पास आओ हाथ थामो तुम ही मेरी ज़िन्दगी हो
मेरे ख़तों को जो तूने जला दिया होता एक मुद्दा ग़म का भुला दिया होता झुक गई होती सरे राह हज़ारों पलकें शोख नज़रों को जो तूने झुका दिया होता मिल ही जाते खुशबुओं के ख़ज़ाने हमको जो हवाओं ने उनका पता दिया होता याद आ जाता मुझे गुज़रा ज़माना फिर से वर्क यादों का जो तूने हटा दिया होता नज़र आते न आँखों में हमारे आँसू छुप कर रोना जो हमें भी सिखा दिया होता
छलकते हुस्न की रानाइयों की बात करता हूँ, मचलते जिस्म की परछाइयों की बात करता हूँ क‌ई तन्ज़ान से चुभते हैं मेरे जिस्म में आकर, मैं अक्सर मुल्क पे कुरबानियों की बात करता हूँ क‌ई आवाज़ मिलतीं हैं, बडी शिद्दत से सुनती हैं, मैं जब भी गैर की बर्बादियों की बात करता हूँ खुदा भी हंस के दामन देखता होगा सफ़ीने का, मैं जब भी डूबते फ़रियादियों की बात करता हूँ को‌ई मकरूह सा साया लगा है हिन्द के पीछे, मैं डरता हूँ मगर आबादियों की बात करता हूँ कभी जो काटती थी नोचती थी शाम से मुझको, कलम से मैं उन्ही तन्हा‌इयों की बात करता हूँ शजर एकबार मुझसे कह रहा था गमज़दा होकर, "परिन्दों से तो बस अज़ादियों की बात करता हूँ" मेरे टूटे हु‌ए से ख्वाब भी अब रूठ जाते हैं, मैं उनसे जब कभी शहना‌इयों की बात करता हूँ किसी टूटे से दिल को हौसला देकर के देखो तो, चिरागों से मैं अक्सर आँधियों की बात करता हूँ जुडे बिस्तर पे जब भी देखता हूँ करवटें उलटी, मैं रूठे इश्क से गहरा‌इयों की बात करता हूँ 'फ़टाफ़ट दौर' है जल्दी ही दुनिया देख लेंगे वो, मैं बच्चों से क‌ई शैतानियों की बात करता हूँ मुखौटों में छुपी रहती है बेबस
कुछ निशाँ रह ग‌ए इक कहानी हु‌ई, अ‌ए मुहब्बत तेरी ज़िन्दगानी हु‌ई जो कभी उस समन्दर की तस्कीन थी, वो किनारों से लड़ती रवानी हु‌ई उनकी आँखों में झाँको तो एहसास हो, बूँद सागर की है जो ज़ुबानी हु‌ई चंद रिश्तों की रस्में निभाते रहे, बर्फ़ जमती रही और पानी हु‌ई जिस्म हावी है शायद मेरी रूह पे, हाय हाय ये कैसी जवानी हु‌ई कत्ल की रात "suraj" वो कहता रहा, आपकी ये सज़ा अब पुरानी हु‌ई
कुछ ख्वाहिशों को बेहद मुश्किल है जान पाना, पत्थर से चोट खाके लहरों का लौट आना खुश्बू, बहार, हसरत, तन्हाइयाँ, समन्दर, किरदार मुख्तलिफ़ हैं किस्सा वही पुराना बूढ़ा दरख्त अक्सर करता था ये गुज़ारिश, फल चाहिए तो ले लो पत्थर नही चलाना दीदार जब हुआ तो छलकीं थीं ऐसे खुशियाँ, गोया किसी नदी का सागर की ओर जाना यादों की उस रिदा में रौशन हरेक लम्हा, पूनम की रात जैसे तारों का टिमटिमाना शायद गुलाब कोई खिल जाए ज़िन्दगी में, मैं सीखने लगा हूँ काँटों में मुस्कुराना इक रोज़ आईना भी तंग आके बोल बैठा, अच्छा नही है खुद का खुद से ही रूठ जाना कुछ ख्वाब टूटते हैं सोज़-ए-कलम की खातिर, तखदीर जानती है शायर को आज़माना पूजा खुदा बनाकर ताउम्र उनको "suraj", जिनके लिए कहा था बेहतर है भूल जाना

wo mere dost

वो मुझसे आके मिलेगा यकीन है मुझको मुझे भुला न सकेगा यकीन है मुझको नज़र से बात वो दिल की सुना गया लेकिन ज़ुबाँ से भी वो कहेगा यकीन है मुझको मुझे पता है कि वो भी ग़मों का मारा है मेरी तरह ही जियेगा यकीन है मुझको मेरे क़रीब जो देखा तो जल गई दुनिया मगर वो पास रहेगा यकीन है मुझको किसी की बात में 'घायल' नहीं वो आएगा यक़ीन मुझ पे करेगा यकीन है मुझको

wo pyaar bhare din

कभी जो बंद कीं आँखें कभी जो बंद कीं आँखें सितारों की तरह देखा तुझे इस दिल की दुनिया में बहारों की तरह देखा अकेला जानकर मुझको हवाओं ने जहाँ छेड़ा तुझे उस छेड़खानी में सहारों की तरह देखा कसक तो थी मेरे मन की मगर बेचैन थे बादल तुझे उस हाल में मैंने फुहारों की तरह देखा खिले फूलों की पंखुड़ियाँ ज़रा भी थरथरायीं तो तेरे होठों के कंपने के नज़ारों की तरह देखा उदासी के समंदर ने डुबोना जब कभी चाहा तुझे उस हाल में मैंने किनारों की तरह देखा
The contemporary literature which deals with emotional problems clearly reflects the pathetic condition of modern man. Getting uprooted from native cultural traditions and values, the loss of indigenous language, man’s position as a mere outcast or an accommodated alien, together with multiple injuries and lacerations of the psyche, all account for the theme of identity crisis in the novel. The identity is a subjective sense as well as an observable quality of personal sameness and continuity, paired with some belief in the sameness and continuity of some shared world image. According to Erikson the onset of the identity crisis is in the teenage years, and only individuals who succeed in resolving the crisis will be ready to face future challenges in the life. But the identity crisis may well be recurring, as the challenging world demands us to constantly redefine ourselves. Given today’s rapid development in technology, global economy, dynamics in local and world politics, one might